Thursday 31 July 2008

अगुन-सगुन बिच नाम सुसाखी

तुलसी का काल हिन्दू धर्मावलम्बियों के लिये विभिन्न विरोधी विचारधाराओं के टकराव का काल था। ऎसे ही अनेक विवादों में से एक विवाद था:'सगुण बडा या निर्गुण?' इसे लेकर पंडितों ऒर विद्वानों में शास्त्रार्थ होते रहते थे जिनका सार कुछ निकलता नहीं था प्रत्युत समय शक्ति ऒर ग्यान का ह्रास होता था। ऎसे वातावरण में तुलसी ने सगुण ऒर निर्गुण के मानने वालों के विवाद को समाप्त करने की कोशिश की ऒर उन्होंने कहा:

'अगुन-सगुन बिच नाम सुसाखी'

-नाम निर्गुण ऒर सगुण के बीच सुन्दर साक्षी हॆ।

उन्होंने नाम की महत्ता वर्णित करने के लिये बहुत कुछ कहा हॆ परन्तु जो उन्होंने नाम को निर्गुण ऒर सगुण- दोनों से बड़ा बताया, तो यह बात दिल को छू गयी। ईश्वर को चाहे किसी भी रूप में मानो, उन्हें स्मरण करने का ऒर उनकी पूजा करने का आधार नाम ही हॆ। निर्गुण को मानने वाले चाहे ऊं को पुकारें, राम को या क्रष्ण को, कोई फर्क नहीं पडता। कबीर के राम निर्गुण ही हॆं। इसी प्रकार सगुण को मानने वाले चाहे भगवान के किसी भी रूप का ध्यान करें, नाम के बिना रूप की कल्पना नहीं कर सकते।

तुलसी स्वयं ऎसे भगवद्भक्त हॆं जिनके लिये नाम ही एकमात्र आश्रय हॆ। तभी तो वे बहुत ही आत्मविश्वास के साथ सिंहनाद करते हुए राम के नाम को राम से भी बड़ा बता देते हॆं:

'कहऊं नाम बड़ राम ते निज बिचार अनुसार।'

सच तो यह हॆ कि चाहे कोई भी धर्म, पंथ या संप्रदाय हो; ईश्वर तो एक ही हॆ। ये विवाद ऒर विरोधाभास तो हम इंसानों ने बनाये हॆं। ईश्वर तो अपने हर बच्चे के प्रति स्नेहशील ऒर दयालु हॆ। तो क्या हमें यह अधिकार हॆ कि उस ईश्वर के बनाये संसार में हम विवादों की इतनी बड़ी ऒर मजबूत दीवार खडी कर दें कि सांस लेना ही दुश्वार हो जाये?

Friday 11 July 2008

सीता-त्याग: अकथ्य क्यों?

श्रीरामचरितमानस की जो बहुमान्य प्रति उपलब्ध हॆ, उसमें श्रीराम के राजतिलक ऒर उनके सुचारु राजसंचालन तक की ही कथा का वर्णन हॆ। सीता-त्याग ऒर लव-कुश के जन्म की कथा इसमें नहीं हॆ। यद्यपि सन १९५५ में प्रकाशित, पुस्तक विक्रेता संघ, बम्बई की एक प्रति मेरे पास हॆ जिसके अनुवादक स्वामी पारसनाथ, प्रधान संपादक श्री ज्वालाप्रसाद जी पंडित हॆं, इसमें उत्तरकाण्ड के पश्चात एक लव-कुश काण्ड ऒर हॆ जिसमें आगे की कथा वर्णित हॆ परन्तु इसको अधिक मान्यता प्राप्त नहीं हॆ; अधिकांश लोग इसे क्षेपक मानते हॆं। तुलसी ने सीता-त्याग की कथा लिखी थी या नहीं, यदि लिखी थी तो अधिकांश प्रतियों में वह क्यों नहीं मिलती? ऒर यदि नहीं लिखी तो क्यों नहीं लिखी? इन सब प्रश्नों के हम निश्चयपूर्वक उत्तर नहीं दे सकते परन्तु एक बात तो तय हॆ कि तुलसी यह मानते थे कि लोक ने सीता पर लांछन लगाया था ऒर इस पर श्रीराम ने सीता का त्याग कर दिया था। जॆसा कि उन्होंने बालकाण्ड में एक स्थान पर लिखा हॆ-

'सिय निंदक अघ ओघ नसाए।
लोक बिसोक बनाइ बसाए॥'

[श्रीराम ने अपनी पुरी में रहने वाले, सीताजी की निन्दा करने वाले धोबी ऒर उसके समर्थक पुर-नर-नारियों के पापपसमूह को नाश कर उनको शोकरहित बनाकर अपने धाम में बसा दिया।]

मेरे खयाल से तुलसी सीता-त्याग को अनुचित मानते थे परन्तु भक्त को भगवान पर आक्षेप करने का अधिकार नहीं ऒर शायद उन्हें लगा होगा कि इस संबंध में कुछ भी कहना आत्मग्लानि का विषय हो जायेगा ऒर कुछ न कहने में कोई ग्लानि नहीं।