Friday 1 August 2008

आतंकवाद ऒर कविता

२००१-२००२ की बात हॆ। उन दिनों अफगानिस्तान में तालिबान का शासन था ऒर बुद्ध की प्रतिमाएं तोडी जा रही थी। तब एक दिन बहुत ही उद्वेलन में एक कविता लिखी थी। आज जब देश में फिर से आतंकवादी बड़े पॆमाने पर बम-विस्फोट की साजिश को अंजाम दे रहे हॆं तो वह कविता याद हो आयी। पता नहीं, आज वह कविता कितनी प्रासंगिक हॆ पर उसे पोस्ट कर रही हूं।

टूटती प्रतिमाएं

आज फिर एक गुहा का ध्वंस
एक ऒर प्रतिमा का खंडन
क्या अधिकार हॆ तुम्हें विनाश का
यदि न कर सकते तुम मंडन?
तुम्हारी श्रद्धा, तुम्हारा विश्वास
यही सब बस श्रेष्ठ हॆ
तुम्हारा प्रभुत्व हो स्थापित जग में
बाकी सब कुछ नेष्ट हॆ!
परन्तु ध्यान रहे तुमको भी
प्रतिमाओं में हिन्दुत्व नहीं बसता
यह तो हॆ एक भाव ह्रदय का
हरदम जन-मन में रचता....
प्रतिमाएं, गुहाएं तोडकर
हिन्दुत्व को नष्ट करने की इच्छा
जॆसे मनुष्य की छाया पीटकर
आत्मा को मारने की इच्छा!!!
इन बुद्ध की प्रतिमाओं के मध्य
लगते हो तुम उन्मत्त-प्रमत्त
इनके प्रेम-संदेश को अवहेल
विनाश हेतु जब होते उद्यत।
दिला गया गोतम को मोक्ष
सुजाता का वह मधु-पायस
क्या कर लेगा गरल का दान
चाहे तू कर ले सब आयास।
गरल गॊतम को नहीं, तुझे मिलेगा
इतिहास में कालिम अमरत्व मिलेगा
तेरे कुशासन का शीघ्र अंत होगा
प्रतिमाओं के पुनरुद्धारक का श्राप मिलेगा।
ए निरंकुश तालिबान!
सुन ले तू यह शंखनाद
टूटती प्रतिमाओं के कण-कण का
समय मांगेगा तुझसे हिसाब!